•  

    - एक -

  •  

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    - दो -

  • (एक)

    णेश जी

    लिखना चाहता हूँ

    सीता के राम

    बहुत मुश्किल है

    यह काम

    विघ्न आयेंगे

    जानता हूँ मैं

    पर आपका आवाहन

    हर लेगा उन्हें

    मानता हूँ मैं !

    - तीन -

  • (दो)

    रस्वती जी

    मुझे

    बुद्धि विवेक देना

    विषय के साथ

    न्याय

    कर पाने के लिए,

    विषय-

    ‘मर्यादा में जकड़े प्रेम्र’ का है

    मुझे

    इसे शब्द देने की

    क्षमता दे देना

    मेरी लेखनी में

    विराज के !

    - चार -

  • (तीन)

    नुमान जी,

    राम का प्रेम

    देखा था तुमने

    बहुत नजदीक से

    राम की आँखें

    कब क्या बोलती थीं

    तुमसे बेहतर, शायद किसी ने

    नहीं जाना होगा ।

    सीता-विछोह की

    वेदना को

    कैसे कह पाऊँगा

    मैं

    अपनी लेखनी से

    बिना तुम्हारी भक्ति के,

    बिना तुम्हारी शक्ति के !

    - पाँच -

  • (चार)

    शिव जी,

    आपने

    जरूर चर्चा की होगी

    पार्वती जी से

    राम के

    ‘मर्यादा से घायल प्रेम की ’

    आप दोनों की आँखें

    हर बार भर आयी होंगी

    जब कोमलतम क्षण

    मर्यादा के

    पत्थरों से टकराये होंगे

    पार्वती जी ने

    पोछा होगा

    जिस क्षण

    - छ्ह -

  •  

    आपकी आँखों से

    निकलती गंगा को

    मुझे देना

    उस क्षण का

    थोड़ा सा शिवत्व

    पाकर उसे

    धन्य हो जायेगा

    मेरा

    अदना सा कवित्व !

    - सात -

  • (पांच)

    सूर्य देवता,

    राम भी तो थे

    सूर्यवंशी

    आपका तेज

    दिपदिपाता था

    उनकी

    साॅवली सलोनी देह में

    जिसने

    सीता को

    चकाचैंध किया था

    पुष्प वाटिका में !

    अपनी

    थोड़ी सी रोशनी

    मेरे

    ज्ञान चक्षुओं में भर देना

    ताकि मैं

    कर सकूँ साक्षात्कार

    उस ऊर्जा से, जो

    राम की धरोहर थी।

    - आठ -

  • (छह)

    दुर्गा मैया,

    मुझे देना शक्ति

    कि मेरी लेखनी

    इस दुर्गम कार्य में

    कभी थके नहीं

    और मेरी मेधा

    बीच में चुके नहीं ।

    - नौ -

  • (सात)

    क्ष्मी मैया,

    इतनी कृपा कर देना

    कि

    मेरे शब्दों को

    छापने वाले मिल जायें

    उनके अर्थ से

    होने मत देना

    इस रचना का

    कोई भी अनर्थ !

    जो भी

    छापे इसे,

    जो भी

    बाँचे इसे,

    उसे बनाना

    धन और मन

    दोनों से समर्थ !

    - दस -

  • (आठ)

    वंदना

    माता-पिता

    और अपने

    गुरू चरणों की

    जरूरी है

    क्योंकि

    मेरी गलतियों के बावजूद

    आशीर्वाद में उठे

    उनके हाथ

    कभी झुकते नहीं

    शायद इसीलिये

    मुश्किलों में भी

    मेरे बढ़ते कदम

    रूकते नहीं !

    - ग्यारह -

  •  

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  • (एक)

    पूजा में

    रमने के लिए

    चन्दन जरूरी है

    और

    राम कथा

    रचने के लिये

    तुलसी बाबा का

    वन्दन जरूरी है !

    - बारह -

  • (दो)

    ब्रह्मचर्य में तपे

    मन के साथ

    पौरूष भरे

    तन के साथ

    पुष्प वाटिका में

    पहुंचे थे

    दो कुमार !

    चहुँ ओर

    फूलों की वासन्ती महक

    मन को भरमाने के लिये

    पूरी तरह

    जवान थी

    परन्तु मन में था

    विश्वामित्र का आदेश

    पूजा के लिये

    फूल चुनकर लाने का !

    लक्ष्मण की शैतानियाँ

    संग में थीं,

    - तेरह -

  • (दो)

    पर भाई का

    स्नेह-पगा

    अनुशासन

    कुछ धृष्टता

    करने से

    रोकता था

    हालांकि

    चंचल मन

    आँखों ही आँखों में

    कुछ

    खोजता था ।

    - चौदह -

  • (तीन)

    ता नहीं

    लक्ष्मण को

    सीटी बजाना

    आता था या नहीं

    पर माहौल

    कुछ ऐसा ही

    करने का था

    पर

    एक अदृष्य चाबुक

    तथा अनुशासन का मान

    भाई की मर्यादा

    रखने का था !

    तभी

    कुछ खिलखिलाती

    जल तरंग बजाती

    कुछ ध्वनियाँ

    लक्ष्मण के

    कानों में पड़ीं,

    - पन्द्रह -

  •  

    वसंत

    यौवन से टकराये

    तो

    कुछ तो होगा ही

    लक्ष्मण ने

    भैया से कहा-

    सुन्दर फूल तो

    उस ओर हैं,

    चलिये

    उधर ही चलते हैं

    राम ने

    ताड़ ली

    लक्ष्मण की शैतानी

    पर प्यारे लघु भ्राता का

    मन तो रखना ही था

    सो मुड़ गये

    उस ओर

    जहाँ सीता

    अपनी सहेलियों के

    संग में थीं ।

    - सोलह -

  • (चार)

    क ओर

    दिप दिपा रहा था सूरज

    राम के रूप में

    और दूसरी तरफ

    जीवन्त खरा सोना था

    सीता के रूप में !

    राम की नजरें

    सीता से

    टकरा के लौटीं

    तो

    लक्ष्मण की आँखें भी

    चैंधिया रहीं थी।

    राम की

    आँखों ने

    सीता की

    आँखों से

    क्या ‘बतकही‘ की

    देख नहीं पाये लक्ष्मण,

    - सत्रह -

  •  

    पर कुछ ‘ऐतिहासिक’

    घट चुका है

    ऐसा लगा था उन्हें !

    सीता की

    सखियाँ भी

    भर गयीं थीं

    कौतूहल से

    क्योंकि उन्होंने

    भाँप ली थी

    जनक लली की

    देह में सिहरन !

    इसीलिये

    उन्होंने

    उलाहने भरे

    स्वर में

    पूछा था

    कुमारों से

    पुष्प-वाटिका में

    आने का कारण !

    - अठारह -

  • (पांच)

    गौरी की

    पूजा मेें

    जब सीता के

    वाम अंग फड़के थे

    तो एक

    गुदगुदी सी

    जागी थी

    समूची देह में, सीता की !

    राम के

    पौरूष का आभास

    मन के

    कुँआरे ताल में

    एक कंकरी सी

    डाल गया था

    जिससे

    उठी लहरें

    बहुत देर में

    - उन्नीस -

  •  

    थमीं थीं !

    साथ ही

    मन में

    जागा था विश्वास

    कि राम

    धनुष भंग

    तुम्हीं करोगे

    और तुम्ही

    सीता को

    वरोगे !

    - बीस -

  •  

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  • (एक)

    रा

    जा रहे हैं

    चैदह वर्षों के

    वनवास को

    जब पता चला

    सीता को

    तो लगा उन्हें

    पौरूष परीक्षा की,

    मर्यादा में

    दीक्षा की

    घड़ी आने को है।

    कंधे से कंधा

    मिलाना होगा

    प्यार की

    हर तकलीफ को

    अपना बनाना होगा ।

    मन में

    सीता के

    - इक्कीस -

  •  

    कुछ संकल्प से जागे

    और राम

    नत-मस्तक हुये

    सीता के आगे !

    - बाईस -

  • (दो)

    बीहड़ वन

    और

    सीता का

    कोमल तन,

    राम

    चिन्तातुर होने लगे ।

    पर लक्ष्मण

    सदा की भांति

    चिन्ता हरने को

    भैया की,

    मौजूद वहाँ थे।

    खतरों से जूझना

    लक्ष्मण को

    सदा से

    बहुत भाता था

    इसीलिये

    राम का संग

    उन्हें

    - तेईस -

  •  

    रास भी

    बहुत आता था ।

    उन्हें

    मालूम था

    कि राम

    संग न चलने के लिये

    समझायेंगे जरूर

    पर अन्ततः

    संग ले जायेंगे जरूर !

    - चौबीस -

  • (तीन)

    क्ष्मण के

    वन गमन पर

    सीता को

    चिन्ता थी

    छोटी बहिन

    उर्मिला की,

    चैदह बरस का

    वनवास

    और

    महल का

    अकेलापन

    कैसे सहेगी उर्मिला

    लेकिन

    उर्मिला ने

    दीदी के लिये

    सब कुछ

    सहने का

    मन बना लिया था

    - पच्चीस -

  •  

    और फिर

    जब लक्ष्मण

    खुशी खुशी

    कुछ अनोखा

    करने को आतुर थे

    तो उर्मिला भी

    वैदेही की

    बहिन ही थी

    राज सत्ता के बीच

    सन्त होना

    उन्होंने भी

    जनक से ही सीखा था ।

    - छब्बीस -

  • (चार)

    वन में

    सीता व राम थे

    चित्रकूट की

    स्फटिक शिला थी

    सोने को

    खुले आसमान के नीचे

    और बगल में थी

    कल कल बहती पयस्विनी

    प्रकृति के संग

    राजा का रिश्ता

    जरूरी है

    यह राम ने

    सीता के मन से

    जाना था ।

    कौवे के रूप में

    आया जयन्त

    - सत्ताईस -

  •  

    प्रिया के पैर

    चोंच चुभा तो गया जरूर

    पर राम के पौरूष को

    ललकार के

    तीनों लोक में

    शरण पाना

    संभव नहीं है

    इस बात को

    सीता ने

    पहली बार

    पहचाना था ।

    - अट्ठाईस -

  • (पांच)

    न्तों से

    मिलते जुलते

    वास्ता पड़ा

    सूपनखा जैसी

    मायाविनी से भी

    पर राम तो

    सिर्फ सीता के हैं

    यह सभी जानते थे

    वन की

    मुश्किलों के बीच

    सवाया होता प्रेम

    अटूट होता जा रहा है

    दिन प्रतिदिन

    यह, सभी मानते थे ।

    - उन्तीस -

  • (छह)

    राम ने

    चाँदनी रात में

    क्या कोई

    प्रेम कविता रची थी

    यह तो

    चित्रकूट ही

    बता पायेगा

    लेकिन

    जिन्होंने

    देखे हैं

    अनुसुइया-आश्रम में

    पयस्विनी के किनारे

    झुके हुये पेड़

    अपनी हरीतिमा

    नदी के जल में

    डुबोते हुये

    वे

    - तीस -

  •  

    राम और सीता की

    देह गन्ध से

    उपजी कविता को

    तन और मन

    दोनों से

    महसूस कर सकते हैं ।

    - इकतीस -

  • (सात)

    रावण ने

    हरा था

    वैदेही को

    तो राम भी

    एकाएक

    विदेह हो उठे होगें

    पर

    निज पौरूष का सम्बल

    आश्वस्त कर गया होगा

    कि सीता को

    खोज ही डालेंगे वे,

    चाहे

    कहीं भी हो वे ।

    - बत्तीस -

  • (आठ)

    रावण की बन्दिनी

    सीता

    बेचैन तो थीं

    पर उन्हें भी

    भरोसा था

    राम के पौरूष का

    इसीलिये तो

    रावण की

    मनुहार का

    कोई भी अर्थ नहीं था

    सीता को

    अहसास था

    प्रेम से उपजी

    अपनी ताकत का

    क्योंकि

    उन्हें मालूम था

    अच्छी तरह से

    - तैतीस -

  •  

    कि राम को समर्पित

    कोई भी क्षण

    व्यर्थ नहीं था ।

    - चौतीस -

  • (नौ)

    नुमान की

    लायी मुद्रिका

    सीता की अंगुलियों में तो

    आनी नहीं थी

    इसीलिये उन्होंने

    बाँध कर

    तागे से

    गले में डाली थी,

    रखने को

    हृदय के समीप

    और भेज दिये थे

    अपने कंगन

    राम के अश्रुओं को

    सोखने के लिये

    तथा

    अपनी हथेलियों का

    - पैतीस -

  •  

    अहसास

    राम को

    कराने के लिये

    निज माथे पर !

    - छत्तीस -

  •  

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  • (एक)

    ग से

    गुजरने का

    आदेश दिया था

    राम ने,

    सुनकर

    सीता चैंकी तो थीं

    पर

    राम के

    प्यार ने

    देह में

    इतने समुन्दर भर दिये थे

    कि बड़ी से बड़ी आग से

    गुजर सकती थीं वे

    बिना जले !

    इस बात का

    सीता को भान था

    - सैतीस -

  •  

    और राम को

    इसका

    पूरा का पूरा

    ज्ञान था।

    - अड़तीस -

  • (दो)

    जैसे कि

    आग से

    निकल कर

    और खरा हो जाता है

    सोना

    सीता ऐसे ही

    दिप दिपाती हुयी

    बाहर आयी थीं

    आग से ;

    साँस रोके

    खड़े थे

    सब भालू और बन्दर

    पर हनुमान

    निश्चिन्त थे

    लक्ष्मण की तरह

    क्योंकि उन्होंने

    राम की आँखों में

    बहुत कुछ देखा था ।

    - उन्तालीस -

  • (तीन)

    राम की प्रिया

    फिर बनी थीं सीता,

    अयोध्या

    दीपावली मना रही थी

    पर सीता के

    मन के कोने में

    एक अँधेरा कोना

    अग्नि परीक्षा की

    याद दिला कर

    एक टीसन सी

    पैदा कर रहा था

    उन्होंने

    गर्भस्थ किये थे

    लव और कुश

    पर

    राम के राज्य में

    सीता कुछ क्षणों में

    बिल्कुल

    अकेली थीं !

    - चालीस -

  •  

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  • (एक)

    धोबी के

    वचन,

    प्रणय के

    अँधेरे में,

    वेध रहे थे

    राम का दिल

    यह

    सीता ने जाना था

    पर

    त्यागने की

    कठोर विवशता पर

    उतर आयेंगे राम

    राजा की

    मर्यादा की खातिर

    ऐसा उन्होंने

    कभी नहीं

    अनुमाना था !

    - इकतालीस -

  • (दो)

    राम का ओदश

    तो आदेश था

    हालांकि

    बर्छी जैसा

    चुभा था

    बहुत गहरे

    दिल में सीता के

    टूट जातीं

    पूरी तरह

    शायद उसी समय

    और समा जाती

    धरती माता की

    गोद में

    उसी दिन

    परन्तु

    लव और कुश का

    ध्यान उन्हें था ।

    राम का वंश

    - बयालीस -

  • चलाना था उन्हें

    लव और कुश को

    जनम कर

    इसीलिये

    कर्तव्य की

    प्रत्यंचा पर

    होकर सवार

    सीता ने

    वनवास कर लिया

    राम की खातिर

    फिर से स्वीकार !

    - तैतालीस -

  • (तीन)

    क्ष्मण

    ताकते रहे थे

    जाते हुये रथ से

    टुकुर टुकुर

    पर सीता की

    आँखों में

    आंसू नहीं थे

    हाँ, हृदय में जरूर

    सागर सा

    हाहाकार था ।

    - चौवालीस -

  • (चार)

    ब को ज्ञात है

    यह बात

    कि अश्वमेघ यज्ञ में

    राम ने

    सीता की

    स्वर्ण प्रतिमा लगायी थी

    पर एक बात

    जो अब तक है अज्ञात

    वह यह कि

    स्थापना के पहले

    वह स्वर्ण प्रतिमा, सीता की,

    कितनी बार

    राम के,

    आँसुओं से

    नहायी थी !

    - पैतालीस -

  •  

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  • (छह)

    सीता समाई

    भूमि में

    माटी से उपजी देह

    माटी में

    मिलाने के लिये !

    धीरे धीरे

    गली होगी

    सोने सी देह,

    उम्र तो थी

    राम की छाती में

    समाने की

    पर मर्यादा

    सिर्फ राम की धरोहर नहीं

    जरूरत थी शायद

    दुनिया को

    यह भी, समझाने की !

    - छियालीस -

  • (दो)

    राम ने भी

    प्रिया को धरा में

    समाते हुये देखा होगा

    पर मर्यादा पुरूषोत्तम

    सीता का

    हाथ भी

    नहीं थाम पाये,

    इस बार

    धता बताने का

    मन भी हुआ होगा

    जमाने की

    लोक लाज को !

    पर मर्यादा से बंधा

    जड़वत तन,

    हिला भी होगा या नहीं

    किसी ने जाना नहीं

    आज तक !

    - सैतालीस -

  • (तीन)

    रभरायी होगी

    आत्मा

    और थरथरायी होगी

    देह भी

    इसीलिये

    मन ने ठानी होगी

    लेने को

    जल समाधि

    सरयू के जल में

    आने वाले

    दिनों में !

    - अड़तालीस -

  • (चार)

    ल समाधि से पहले

    करते हुये

    अपनी ही कपाल क्रिया

    राम ने कहा होगा

    मन ही मन-

    प्रिये

    मेरा मस्तिष्क

    कितना विगलित हुआ था

    उस क्षण

    जब तुम

    धरती में समायीं थीं,

    यह तुम्हें

    मेरी कपाल क्रिया से

    खुल गये

    दिमाग को छूता हुआ

    सरयू का

    जल ही बतायेगा

    - उनन्चास -

  • जब भी कभी

    वह तुम्हारी

    माटी बनी

    देह से टकरायेगा ।

    वह

    यह भी बतायेगा

    कि भीतर ही भीतर

    राम

    कितना रोया था

    जब दूसरी बार

    मर्यादा की रक्षा में

    उसने तुम्हें पाकर भी

    खोया था !

    - पचास -

  •  

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  • दोहे

    जहर हवा में घुल रहा, पग पग पे विशदंश ।

    मर्यादा का लोप है, आज राम के वंश ।।

     

    वर्तमान है रेत सा, मरूथल सा परिवेश ।

    जनता पानी ढूंढ़ती, प्यासा मरता देश ।।

     

    कांटे हँसते झूमते, रोते फिरे गुलाब ।

    माली सोते चैन से, ऐसा समय खराब ।।

     

    मंदिर मस्जिद नाम से, जब तक बँटते वोट ।

    तब तक मिटने से रहा, राजनीति का खोट ।।

     

    बगुले बैठे हर जगह, नदिया पोखर ताल ।

    हल कैसे फिर हो सकें, उलझे हुये सवाल ।।

     

    सभी नपुंसक हो रहे, सत्ता वाली छाँव ।

    खोजे देश विकल्प अब, अंगारों के गाँव ।।

     

    फुलझडि़याँ भाती नहीं, करो काम की बात ।

    बिना उगे ही सूर्य के, कब मिट पायी रात ।।

    - इक्यावन -

  • कुछ कविताऐं.........

    (एक)

    टी. वी . पर

    श्री राम,

    अखबारों में

    श्री राम,

    गली गली के

    नारों में

    श्री राम,

    गायब हैं

    तो बस,

    मन के अंधियारों से

    श्री राम !

    - बावन -

  • (दो)

    निर्णय की खातिर

    न्यायालय में

    लटके श्री राम,

    वोटों से नोटों की खातिर

    लोगों के

    प्राणों में अटके

    श्री राम,

    मंदिर के खातिर

    बन्दों के

    दंगों में

    भटके श्री राम !

    - तिरपन -

  • (तीन)

    यौवन में-

    राज्य परिधि से

    निर्वासित श्री राम,

    घर लौटे तो-

    धोबी के वचनों से

    मर्यादित श्री राम

    कलयुग में आकर-

    बेघर रहने को

    अभिशापित श्री राम !

    - चौवन -

  • (चार)

    लोमड़ों के साथ

    खुल्लम-खुल्लों की जय,

    आकाओं के साथ

    दुम-छल्लों की जय,

    श्री राम के साथ

    मजहबी

    कठमुल्लों की जय ।

    - पचपन -

  • (पांच)

    गाँठें मन की

    खोलेंगे श्री राम,

    हवाओं के जहर में

    अमृत भी

    घोलेंगे श्री राम,

    वह दिन भी आयेगा

    जब सबके सब

    बोलेंगे श्री राम !

    - छप्पन -

  • कृतिकार का परिचय

    जन्म: दो नवम्बर, 1953

    पिता पी.सी.एस. संवर्ग से सेवानितृत

    अग्रज पुत्र होने के नाते माता-पिता का विषेष स्नेह प्राप्त ।

    पेशे से कैन्सर विषेषज्ञ ।

    स्थानीय जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज के जे.के. कैन्सर संस्थान में प्रोफेसर एवं निदेषक ।

    कैन्सर के उच्च स्तरीय प्रशिक्शण के लिये अमेरिका, ब्रिटेन, हालैण्ड व टाटा मेमोरियल कैन्सर संस्थान के रेडियेषन मेडिसिन सेन्टर में कार्य ।

    सर्वप्रथम रचना, वर्ष 1965 में, ‘धर्मयुग ’ में प्रकाशित ।

    19.01.97 को ‘अनुरंजिका‘ द्वारा सारस्वत सम्मान से सम्मानित ।

    12.04.97 को उ.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा हस्ताक्षरित विशिष्ट सम्मान से सम्मानित ।